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अमीर -गरीब जिम्मेदार नहीं प्रदूषण के लिए


कुछ सरकारी नौकर हो या अपने आप को जागरूक कहने वाले कुछ मठाधीश लगता है सबने अमीरों को बदनाम करने तथा गरीब अमीर के बीच खाई पैदा करने की कसम खा रखी है। जनरल नेचर सस्टेनेबिलिटी में बीते सोमवार को प्रकाशित एक नए अध्ययन में दावा किया गया है कि प्रदूषण फैलाते हैं अमीर मरते हैं गरीब। इसको लेकर एक समाचार पत्र में पढ़ने को मिली खबर से यह स्पष्ट हो रहा है कि प्रदूषण फैलाने वालों की ओर से सरकार की नजर हटाने या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छता अभियान की मार से प्रदूषण फैला रहे लोगों को बचाने के लिए कुछ लोग प्रयासरत हैं। इस सर्वे के पीछे भी यह मंशा होगी यह तो मैं नहीं कह सकता लेकिन यह कहने में कोई हर्ज महसूस नहीं हो रहा है कि ऐसी बातें सिर्फ मनगढ़ंत किस्सों में अच्छी लगती है। सामान्य जीवन में नहीं।



जापान स्थित पर्यावरणीय अध्ययन के एक प्रमुख केंद्र रिसर्च इंस्टीट्यूट फाॅर ह्युमैनिटी ऐंड नेचर ने अपने अध्ययन में भारत के संपन्न वर्ग की विलासितापूर्ण जीवनशैली और महंगे खानपान को पर्यावरण के लिहाज से चिंताजनक पाया है. पूरी दुनिया में करीब सात प्रतिशत कार्बन डाइय आॅक्साइड उत्सर्जन का जिम्मेदार भारत है और वैश्विक उत्सर्जन में उसका नंबर तीसरा है.



भारत में सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जित करने वाली दो प्रमुख गतिविधियां हैं भोजन और बिजली की खपत. ऐसे समय में जब जलवायु परिवर्तन दुनिया की सबसे प्रमुख चुनौती बनकर उभरा है, ऐसे अध्ययन समस्या को समझने और उनसे निपटने का एक रास्ता सुझाने की व गरीब और अमीर के बीच खाई पैदा करने की कोशिश करते नजर आ रहे है।



घरेलू खर्च पर सरकार के ही राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संगठन से मिले डाटा के आधार पर हुए इस अध्ययन के मुताबिक बड़ी आय और बड़े खर्च वाले सबसे संपन्न 20 प्रतिशत परिवारों में, कम आय और कम खर्चों वाले यानी निर्धन घरों के मुकाबले सात गुना अधिक कार्बन उत्सर्जन होता है।



एक व्यक्ति का कार्बन फुटप्रिंट आधा टन
भारत में हर व्यक्ति का औसत कार्बन फुटप्रिंट प्रति वर्ष आधा टन से कुछ अधिक का पाया गया है. इसमें अमीरों की हिस्सेदारी 1.32 टन की है. किसी व्यक्ति के कार्बन फुटप्रिंट का मतलब है अपनी गतिविधियों से वो कितना कार्बन उत्सर्जित करता है यानी आम भाषा में कहें कि कितना प्रदूषण फैलाता है।
गरीब घरों और सीमित आय वाले घरों में डिटर्जेंट, साबुन और कपड़े-लत्तों से सबसे अधिक कार्बन फुटप्रिंट बनते हैं. अमीर घरों में निजी वाहनों और महंगे साजोसामान से सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन होता है. अध्ययन के जरिए पहली बार देशव्यापी स्तर पर कार्बन फुटप्रिंट का क्षेत्र और वर्ग विशेष आकलन संभव हुआ है. इसके लिए 623 जिलों के दो लाख से अधिक घरों का डाटा लिया गया है. लेकिन इसमें सरकारों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों का डाटा शामिल नहीं है। मुझे लगता है कि अगर उन्हें व गरीब बस्तियों को शामिल किया गया होता तो ठीक रहता।
अध्ययन का एक प्रखर संदेश यह भी है कि गरीबों के लिए बनने वाली विकास परियोजनाएं पर्यावरण का उतना नुकसान नहीं करती हैं जितना कि अमीरों को और अमीर बनाने वाली नीतियां. आंकड़ों के मुताबिक गरीबी निवारण की कोशिशों से कार्बन उत्सर्जन में सिर्फ करीब दो फीसदी की बढ़ोत्तरी होती है. यानी गरीबोन्मुख विकास से पर्यावरण का कम नुकसान होता है. लेकिन यही बात उन आर्थिक नीतियों पर लागू नहीं होती जो समाज के अमीरों और उच्च मध्यवर्ग की मदद करती हैं।
मध्य आय वाले परिवारों को उच्च वर्ग में ले जाने की कार्रवाई से कार्बन उत्सर्जन में 10 प्रतिशत की वृद्धि होती है. इंडिया स्पेंड वेबसाइट में जापानी अध्ययन केंद्र के आंकड़ों को प्रकाशित करते हुए बताया गया है कि अगर सभी भारतीय, अमीरों जितना ही उपभोग करने लगें तो कुल उत्सर्जन में करीब 50 प्रतिशत की वृद्धि हो जाएगी।
बिजली और खाना है जिम्मेदार
बिजली की खपत से सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जित होती है. कुल बिजली उत्पादन का 74 प्रतिशत कोयले से ही आ रहा है. दूसरी ओर भोजन दूसरा सबसे प्रमुख उत्सर्जक है लेकिन उसकी खपत के पैटर्न बहुत अलग अलग हैं. कम और मध्य आय वर्ग वाले घरों में अनाज पर निर्भरता है, जबकि अमीर वर्ग सामान्य खाद्य सामग्री से अधिक महंगे भोजन पर खर्च करता है. जैसे मीट, अल्कोहल, अन्य पेय पदार्थ, फल, जूस, रेस्तरां आदि। भोजन की उपलब्धता का संबंध कृषि और उससे जुड़े पशुपालन, सिंचाई और डेयरी जैसे उद्योगो से है. खाद्यान्न उत्पादन में भी बिजली की खपत होती है. कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने का अर्थ यह नहीं है कि इन गतिविधियों को रोक दिया जाए या उन्हें कम से कम किया जाए. अगर ऐसा करना पड़े तो सबसे बुरी मार एक बार फिर देश के गरीबों पर ही पड़ेगी।
आशय यह है कि सरकारें अपनी नीतियां इस तरह बनाएं, अपने उद्योगों को पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से इतनी उपयोगी और हिफाजती बनाएं कि गरीबों पर उसका गलत असर न पड़े, आर्थिक गतिविधि शिथिल न हो और जलवायु परिवर्तन की वजहें न्यूनतम हो सकें. जाहिर है खेती-किसानी और संबद्ध उद्योगों को और आधुनिक बनाना होगा लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि पारंपरिक खेती को अलविदा कह दिया जाए. उसके कुछ महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती और देश के ग्राम्य परिवेश की स्वाभाविकता से छेड़छाड़ भी नहीं की जा सकती।
आधुनिकता की दौड़ में
अध्ययन में यह भी पाया गया कि हरित क्रांति के दौर में भारत में अधिक उत्पादन लेकिन कम पोषक तत्वों वाली गेहूं और चावल की नस्लें तैयार की जिनसे बड़े पैमाने पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी हुआ. अधिक पोषक और कम उत्सर्जक देसी नस्लों की अनदेखी का खामियाजा भी भुगतना पड़ा है. जानकारों का मानना है कि मोटे अनाज के उत्पादन पर और ध्यान देने की जरूरत है. जो पोषण के लिहाज से भी अधिक और सर्वथा उपयुक्त है. सबसे अधिक जरूरी है खानपान में विलासिता और स्थानीय भोजन से अरुचि छोड़नी होगी।
अमीरों और गरीबों की जीवनशैलियों और उपभोग की क्षमताओं से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान के बारे में ये पहली रिपोर्ट नहीं है. संयुक्त राष्ट्र और अन्य संस्थाओं के वैश्विक अध्ययनों में ऐसे तुलनात्मक अध्ययन हो चुके हैं जिनके मुताबिक दुनिया में सबसे अमीर एक प्रतिशत लोग, दुनिया के 50 प्रतिशत सबसे गरीब लोगों के दोगुने से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं।
जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के तहत भारत, ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 2030 तक 33-35 प्रतिशत की कटौती कर उसे 2005 के स्तर से नीचे लाने और अक्षय ऊर्जा स्रोतों की क्षमता बढ़ाकर 40 फीसदी करने की अपनी दो प्रतिबद्धताओं को पूरा करने की राह पर है. सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को दूर करना भी जरूरी है. गरीबी उन्मूलन की दिशा में व्यवहारिक कदम उठाए जाएं तो विकास के लाभ बनाम पर्यावरणीय नुकसान के असंतुलन को ठीक किया जा सकता है।
दूसरी तरफ जनरल नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि वायु प्रदूषण से 70 लाख लोगों की मौत दुनियाभर में हो जाती है तथा छह लाख बच्चे भी इन मौतों में शामिल हैं। सर्वे एजंेसी और अध्ययन प्रकाशन करने वाली पत्रिका का इन आंकड़ों के पीछे आधार क्या है यह तो वही जान सकते हैं मगर मुझे लगता है कि यह आंकड़ें सही नहीं है। सर्वे जमीनी स्तर पर नहीं किया गया। अगर किया जाता तो यह बात नहीं कही जा सकती थी। क्यांेंकि जहां तक वायु प्रदूषण का मामला है सर्वे में नहीं बताया गया कि किस प्रकार के वायु प्रदूषण से यह मौतें हो रही है। अगर सबसे ज्यादा देखें तो वायु प्रदूषण ठंडी हवा देने वाले एसी के कारण भी होता है। और यह हवा अमीर ही नहीं मध्यम दर्जे के लोग और गरीब भी खा रहे हैं भले ही इनके अपने घरों में यह सुविधा ना हो पाती हो लेकिन सरकारी दफ्तरों में चलने वाले एसी का मजा सब लेते हैं और फिर भी अगर इसके लिए कोई दोषी है तो वो हमारा सरकारी तंत्र और प्रदूषण नियंत्रण विभाग जिम्मेदार है क्योंकि एसी बनाने की अनुमति ही क्यो दी जा रही है और दी जा रही है तो ऐसी व्यवस्था विकसित की जाए जिससे एसी से प्रदूषण ना फैले और ऐसा संभव नहीं है तो सरकारी आफिसों में लगे सरकारी एसी बंद कराए जाए क्योंकि इनके लिए कोई अमीर या गरीब जिम्मेदार नहीं है। अफसर और हवा खाने वाले जिम्मेदार है।
दूसरी ओर आलीशान जीवन शैली से कहीं वायु प्रदूषण नहीं फैलता क्योंकि अमीर लोग तो वायु समेत किसी भी प्रकार का प्रदूषण झेलने की शक्ति आरामतलबी के चलते पहले ही ज्यादातर खो चुके होते हैं। सही मायनों में वायु प्रदूषण वाहन सही करने वाले मैकेनिक जो सड़कों पर प्लास्टिक व तार जलाते हैं या सरकारी विभागों की लापरवाही के चलते गली मौहल्लों में नालों में फैलने वाली गंदगी और सड़कों पर फैले कूढ़े से पैदा होता है जिसके लिए किसी अमीर आदमी को दोषी नहीं कहा जा सकता। इसके लिए दोषी है तो सफाई करने के लिए बनाए गए विभाग और उनके अफसरों के अतिरिक्त गंदगी जहां फैलती है वहां के रहने वाले हैं जो घरों में सफाई कर कूड़ा बाहर की नालियों में डाल देते हैं या कहीं भी झोपड़ी डालकर निवास करने लगते हैं इसके लिए अमीरों को नहीं संबंधित अफसरों की नीति को दोष दिया जा सकता है क्योंकि जरूरतमंद व्यक्तियों को आवास बनाकर देने का काम प्राथमिकता से क्यों नहीं हो रहा। रही बात इससे मरने वालों की तो दोनों ही वर्ग के लोग मरते हैं। सर्वे में यह कहीं नहीं दिया गया कि 70 लाख में कितने अमीर और गरीब मरे। अब इसके अलावा देखें तो ध्वनि प्रदूषण भी कोई कम घातक नहीं है। लोगों की सुनने और स्मरण शक्ति प्रभावित करता है। बच्चों की पढ़ाई में बाधा उत्पन्न करता है और मरीज के साथ साथ जिधर से भी डीजे निकलते हैं वहां का माहौल काफी देर तक ऐसा हो जाता है कि जिससे कोई आवाज भी सुनाई नहीं देती। लेकिन इस ध्वनि प्रदूषण का असर भी गरीब अमीर दोनों पर ही पड़ता है। और कहे तो इससे अमीर ज्यादा प्रभावित होता है क्योंकि जो सवारियां निकाली जाती है उसमंे मध्यम दर्जे के या गरीब लोग ही शामिल होते हैं और तेज आवाज में डीजे बजवाते हैं।
अब जैसे कोरोना काल में कोरोना को ही ले लें अगर सर्वे कराया जाए तो कोरोना संक्रमण बढ़ने के लिए अमीरों को इतना जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता है जितना और है। ध्यान से देखें तो धार्मिक स्थलों बाजारों और दारू की दुकानों पर लाॅकडाउन के नियमों का जो उल्लंघन होता है उसमें सभी वर्गो के लोग शामिल होते हैं अकेले अमीर नहीं।
कुल मिलाकर मुझे लगता है कि सर्वे कराने वाले संगठन रिसर्च इंस्टीट्यूट फाॅर ह्युमैनिटी ऐंड नेचर और इस अध्ययन को प्रकाशित करने वाली जनरल नेचर सस्टेनेबिलिटी ने सर्वे में सभी बिंदुओं का ध्यान नहीं रखा। बस रिपोर्ट तैयार की और जारी कर दी। जबकि मुझे लगता है कि प्रदूषण चाहे वायु हो या ध्वनि अथवा किसी और प्रकार का उसके लिए गरीब अमीर और कोई एक वर्ग नहीं सभी जिम्मेदार हैं। और सबसे ज्यादा अगर कोई दोषी है तो वो सरकारी विभागों के वो अफसर हैं जो अपनी काम का सही प्रकार से निस्तारण नहीं कर रहे हैं। इसमें वनों के अवैध कटान, नदियों के खनन, गंदगी, जलभराव आदि के लिए वहां के कर्मचारी व प्रदूषण नियंत्रण विभाग, स्थानीय निकाय आदि के अफसर जिम्मेदार हैं। कोई अमीर या गरीब नहीं। मेरा मानना है कि लोकतंत्र में अपनी बात कहने का अधिकार सबको है लेकिन सरकार यह तय करे कि किसी भी मुददे को लेकर कोई भी बात कही जाए तो पहले उसकी सत्यता देखी जाए क्योंकि इस प्रकार के सर्वों से दोनों वर्गों में वैमनस्य और एक दूसरे के प्रति दुर्भावना तो पैदा होती है और देश की बदनामी भी जिसे समाज के लिए किसी भी रूप में ठीक नहीं कहा जा सकता।
मेरा इरादा किसी सर्वे या अध्ययन प्रकाशन अथवा उससे संबंधित विभाग और संस्था को चैलेंज करने का नहीं है। मुझे लगता है कि अगर थोड़ा सा इनको करते समय समाज के बिल्कुल निचले स्तर पर जाकर थोड़ी सी खोज की जाए तो सही स्थिति खुलकर सामने आ सकती है उससे ना तो गरीब अमीर में कोई वैमनस्य पैदा होगा और सही बात का भी पता सरकार व आम आदमी को चल पाएगा।

– रवि कुमार विश्नोई
सम्पादक – दैनिक केसर खुशबू टाईम्स
अध्यक्ष – ऑल इंडिया न्यूज पेपर्स एसोसिएशन
आईना, सोशल मीडिया एसोसिएशन (एसएमए)
MD – www.tazzakhabar.com

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